माँ अन्नपूर्णा चालीसा || Annapurna Chalisa Lyrics in Hindi

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माता अन्नपूर्णा: हिंदू पौराणिक कथाओं में अन्न की देवी

माता अन्नपूर्णा हिंदू धर्म में अन्न और पोषण की देवी हैं, जिन्हें मां पार्वती का स्वरूप माना जाता है। इनका नाम संस्कृत शब्द “अन्न” (भोजन) और “पूर्ण” (सम्पूर्ण) से लिया गया है, जो इनके अन्नदान और समृद्धि प्रदान करने वाले स्वभाव को दर्शाता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार, एक बार भगवान शिव ने माया के रूप में अन्न को निरर्थक बताया, जिससे क्रोधित होकर माता पार्वती ने स्वरूप बदलकर अन्नपूर्णा के रूप में काशी में अन्न वितरण किया। इससे शिव को यह एहसास हुआ कि भौतिक जीवन के लिए अन्न अपरिहार्य है।

अन्नपूर्णा को स्वर्ण कलश और करछुल धारण करने वाली देवी के रूप में चित्रित किया जाता है, जो संसार को पोषण देती हैं। इनकी पूजा विशेष रूप से मार्गशीर्ष पूर्णिमा (अन्नपूर्णा जयंती) और अक्षय तृतीया पर की जाती है। काशी विश्वनाथ मंदिर (वाराणसी) और कर्नाटक के होरनाडु मंदिर में इनकी आराधना प्रमुख है, जहाँ भक्तों को निःशुल्क भोजन प्रसाद के रूप में वितरित किया जाता है।

इनकी पूजा कृतज्ञता, संतुलन और दानशीलता का संदेश देती है। अन्नदान को सर्वश्रेष्ठ दान माना गया है, जो मनुष्य को भौतिक और आध्यात्मिक पोषण प्रदान करता है। माता अन्नपूर्णा का आशीर्वाद घर में अन्न की कमी दूर करने और समृद्धि लाने के लिए माना जाता है।

दोहा

विश्वेश्वर पदपदम की रज निज शीश लगाय ।
अन्नपूर्णे, तव सुयश बरनौं कवि मतिलाय ॥

चौपाई

नित्य आनंद करिणी माता।
वर अरु अभय भाव प्रख्याता ॥१॥

जय ! सौंदर्य सिंधु जग जननी।
अखिल पाप हर भव-भय-हरनी ॥२॥

श्वेत बदन पर श्वेत बसन पुनि।
संतन तुव पद सेवत ऋषिमुनि ॥३॥

काशी पुराधीश्वरी माता।
माहेश्वरी सकल जग त्राता ॥४॥

वृषभारुढ़ नाम रुद्राणी।
विश्व विहारिणि जय ! कल्याणी ॥५॥

पतिदेवता सुतीत शिरोमणि।
पदवी प्राप्त कीन्ह गिरी नंदिनि ॥६॥

पति विछोह दुःख सहि नहिं पावा।
योग अग्नि तब बदन जरावा ॥७॥

देह तजत शिव चरण सनेहू।
राखेहु जात हिमगिरि गेहू ॥८॥

प्रकटी गिरिजा नाम धरायो।
अति आनंद भवन मँह छायो ॥९॥

नारद ने तब तोहिं भरमायहु।
ब्याह करन हित पाठ पढ़ायहु ॥१०॥

ब्रहमा वरुण कुबेर गनाये।
देवराज आदिक कहि गाये ॥११॥

सब देवन को सुजस बखानी।
मति पलटन की मन मँह ठानी ॥१२॥

अचल रहीं तुम प्रण पर धन्या।
कीहनी सिद्ध हिमाचल कन्या ॥१३॥

निज कौ तब नारद घबराये।
तब प्रण पूरण मंत्र पढ़ाये ॥१४॥

करन हेतु तप तोहिं उपदेशेउ।
संत बचन तुम सत्य परेखेहु ॥१५॥

गगनगिरा सुनि टरी न टारे।
ब्रहां तब तुव पास पधारे ॥१६॥

कहेउ पुत्रि वर माँगु अनूपा।
देहुँ आज तुव मति अनुरुपा ॥१७॥

तुम तप कीन्ह अलौकिक भारी।
कष्ट उठायहु अति सुकुमारी ॥१८॥

अब संदेह छाँड़ि कछु मोसों।
है सौगंध नहीं छल तोसों ॥१९॥

करत वेद विद ब्रहमा जानहु।
वचन मोर यह सांचा मानहु ॥२०॥

तजि संकोच कहहु निज इच्छा।
देहौं मैं मनमानी भिक्षा ॥२१॥

सुनि ब्रहमा की मधुरी बानी।
मुख सों कछु मुसुकाय भवानी ॥२२॥

बोली तुम का कहहु विधाता।
तुम तो जगके स्रष्टाधाता ॥२३॥

मम कामना गुप्त नहिं तोंसों।
कहवावा चाहहु का मोंसों ॥२४॥

दक्ष यज्ञ महँ मरती बारा।
शंभुनाथ पुनि होहिं हमारा ॥२५॥

सो अब मिलहिं मोहिं मनभाये।
कहि तथास्तु विधि धाम सिधाये ॥२६॥

तब गिरिजा शंकर तव भयऊ।
फल कामना संशयो गयऊ ॥२७॥

चन्द्रकोटि रवि कोटि प्रकाशा।
तब आनन महँ करत निवासा ॥२८॥

माला पुस्तक अंकुश सोहै।
कर मँह अपर पाश मन मोहै ॥२९॥

अन्न्पूर्णे ! सदापूर्णे।
अज अनवघ अनंत पूर्णे ॥३०॥

कृपा सागरी क्षेमंकरि माँ।
भव विभूति आनंद भरी माँ ॥३१॥

कमल विलोचन विलसित भाले।
देवि कालिके चण्डि कराले ॥३२॥

तुम कैलास मांहि है गिरिजा।
विलसी आनंद साथ सिंधुजा ॥३३॥

स्वर्ग महालक्ष्मी कहलायी।
मर्त्य लोक लक्ष्मी पदपायी ॥३४॥

विलसी सब मँह सर्व सरुपा।
सेवत तोहिं अमर पुर भूपा ॥३५॥

जो पढ़िहहिं यह तव चालीसा।
फल पाइंहहि शुभ साखी ईसा ॥३६॥

प्रात समय जो जन मन लायो।
पढ़िहहिं भक्ति सुरुचि अघिकायो ॥३७॥

स्त्री कलत्र पति मित्र पुत्र युत।
परमैश्रवर्य लाभ लहि अद्भुत ॥३८॥

राज विमुख को राज दिवावै।
जस तेरो जन सुजस बढ़ावै ॥३९॥

पाठ महा मुद मंगल दाता।
भक्त मनोवांछित निधि पाता ॥४०॥

दोहा

जो यह चालीसा सुभग, पढ़ि नावैंगे माथ ।
तिनके कारज सिद्ध सब, साखी काशी नाथ ॥

॥ इति माँ अन्नपूर्णा चालीसा ॥

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